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दहलीज़ के साये!

मैं था बिस्तर पर, जैसे सच में सोया, कमरे की चुप्पी ने, मन में कुछ बोया। परछाइयाँ चार, साँसों में घुलती, तीन डराती, एक सहारा बन मिलती। दो पुरुष—वक़्त की सिलवटों से बने, एक स्त्री—जैसे पीड़ा को छुपाए खड़े। एक लड़की, मौन में कोहराम लाती, बचपन की कोई भूली रुलाई दोहराती। नीचे कहीं भाई था, अंधेरे में उजाला, उसने पकड़ा मुझे, और जैसे खींच निकाला। साथ था वो भला भूत, जो ढाल सा था खड़ा, बाक़ी तीन, जैसे मन कोई परीक्षा को अड़ा। उठने चला, मगर हर बार बिस्तर ने खींचा, अचानक एक अजीब भय मन ने सींचा। लैपटॉप जला रहा था, जैसे ध्यान की लौ, पर दरवाज़ा का रुख ऐसा, जैसे अस्तित्व कुछ और ही हो। वो दो आँखें—दहलीज़ पे जमीं, एक मौन आतंक, एक देखी हुई छवि। मैंने चीखा, पर गूंगी हो गई मेरी बात, कंठ में उलझा, हर कोश...